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Baith jaata hoon Aksar by Harivansh Roy Bachhan

बैठ जाता हूँ मिट्टी पे अक्सर
क्योंकि मुझे अपनी औकात अच्छी लगती है
मैंने समंदर से सीखा है जीने का सलीक़ा,
चुपचाप से बहना और अपनी मौज में रहना ।
ऐसा नहीं है कि मुझमें कोई ऐब नहीं है 


जल जाते हैं मेरे अंदाज़ से मेरे दुश्मन क्योंकि
एक मुद्दत से मैंने न मोहब्बत बदली और न दोस्त बदले ।

एक घड़ी ख़रीदकर हाथ मे क्या बाँध ली,
वक़्त पीछे ही पड़ गया मेरे ।
सोचा था घर बना कर बैठूँगा सुकून से;
पर घर की ज़रूरतों ने मुसाफ़िर बना डाला ।
सुकून की बात मत कर ऐ ग़ालिब,
बचपन वाला ‘इतवार’ अब नहीं आता ।
शौक तो माँ-बाप के पैसों से पूरे होते हैं,
अपने पैसों से तो बस ज़रूरतें ही पूरी हो पाती हैं ।
जीवन की भाग-दौड़ में;
क्यूँ वक़्त के साथ रंगत खो जाती है ?
हँसती-खेलती ज़िन्दगी भी आम हो जाती है ।
एक सवेरा था जब हँस कर उठते थे हम,
और;
आज कई बार बिना मुस्कुराये ही शाम हो जाती है ।
कितने दूर निकल गए,
रिश्तों को निभाते निभाते;
खुद को खो दिया हमने,
अपनों को पाते पाते ।

लोग कहते है हम मुस्कुराते बहुत हैं,
और हम थक गए दर्द छुपाते छुपाते ।
खुश हूँ और सबको खुश रखता हूँ,
लापरवाह हूँ फिर भी सबकी परवाह
करता हूँ ।
मालूम है कोई मोल नहीं मेरा,
फिर भी,
कुछ अनमोल लोगो से
रिश्ता रखता हूँ ।
–हरिवंशराय बच्चन

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